Monday, August 9, 2010

कुछ ख़ास है यह "नौ"

यूँ तो आज़ादी के दीवानों के लिए स्वतंत्रता संग्राम कि हर तारिख उतनी ही पाक और पवित्र है. जंग-ए-आज़ादी के हर दिन को इन दीवानों ने अपनी शहादत का दिन माना और कुर्बानियां दीं. इतिहास की तारीखों पर गौर करने पर हमें मालूम होगा कि जितना पवित्र अगस्त का महीना है उतना और कोई नहीं. और अगर बात की जाये तारीखों कि तो ९ अगस्त अपनी एक ख़ास अहमियत रखती है. इसी दिन तीन-तीन ऐसी घटनाएँ घटीं जो स्वतंत्रता के समर में मील का पत्थर साबित हुईं. इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में दर्ज ये तारीखें हमें फक्र करने का मौका देती हैं.
१.) ९ अगस्त १८९७, ये वो तारिख है, जिस दिन दामोदर चापेकर को गिरफ्तार किया गया था. यह वही दामोदर चापेकर हैं जिनको जंग-ए-आज़ादी में पहला क्रांतिकारी शहीद होने का गौरव प्राप्त है. इन्होंने पुणे के प्लागुए कमिश्नर रैंड कि हत्या अपने दो भाइयों के साथ मिलकर की थी. हत्या २२ जून १८९७ को हुई थी और इसमें भाई बाल कृष्ण चापेकात्र और वासुदेव चापेकर भी भागिदार थे.
२.) ९ अगस्त १९२५, काकोरी कांड. ८ डाउन ट्रेन को काकोरी में लूट कर क्रन्तिकरिओन ने लूट कर बर्तानिया हुकूमत कि नींद उदा दी थी. इस लूट से जहाँ क्रांतिकारियों को धन मिला वहीँ अंग्रेजों को सबक कि क्रांतिकारी केवल बोलना ही नहीं जानते, अपनी बातों को अंजाम देने का माद्दा भी रखते हैं.
३.) ९ अगस्त १९४२, स्वतंत्रता संग्राम का आखिरी और निर्णायक आन्दोलन "भारत छोड़ो आन्दोलन" की शुरुवात ग्वालीयर टेंट मैदान से हुई. इस आन्दोलन में भारतीय एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए और उन्हें भागने पर मजबूर कर दिया.

इससे तो हम यही कह सकते हैं कि आखिर यह ९ यानी, ९ अगस्त वाकई कुछ ख़ास है.

Wednesday, May 12, 2010

किसका भरत महान ?

बड़ा अटपटा सा प्रश्न है ना, "किसका भारत महान?" सभी भारतवासी इसका उत्तर एक सांस में, एक सुर में देते हैं, मेरा भारत महान. परन्तु मेरे इस देश का दुर्भाग्य यही रह गया है कि, मेरे भारत की महानता कुछ और नहीं बस एक कोरा नारा बनकर रह गयी है. प्रत्येक जलसे में, रैलियों में, स्वतंत्रता दिवस पर, गणतंत्र दिवस पर और ऐसे ही कुछ अन्य अवसरों पर 'भारत माता की जय' और 'मेरा भारत महान' जैसे नारे गूंजते रहते हैं. परन्तु वास्तविकता यही है कि इस बात को मानने के लिए कोई तैयार नहीं है. भारत की महानता बस जय-जयकार व शोर की वास्तु बनकर रह गयी है. ऐसी महानता पर किसको नाज़ होगा? हम मुंह से तो भारत को महान कहने में नहीं झिझकते परन्तु ह्रदय से मानते भी नही  हैं.
आज का छात्र विदेश में जाकर पढने व कमाने का सपना आँखों में पाल कर बड़ा होता है. मौका मिलते ही प्रत्येक छात्र विदेश जाकर बस जाने को तैयार है. हमारे इंजिनियर व डॉक्टर कहते हैं कि भारत में वो सुविधा उपलब्ध नहीं है जो विदेशों में है. भारत में आगे बढ़ने के अवसर नहीं हैं. भारत में पैसा नहीं है. फिर भारत किस प्रकार महान है? क्या भारत ऐसे सपूतों को जनकर ही महान हो गया जो मौका मिलते ही पीठ दिखाकर भाग जाने को तैयार हैं? क्या भारत इसलिए महान है कि उसके वीर सपूत इतने धन-लोलुप व सुविधा प्रेमी हो गए हैं कि वे भारत में कष्ट सहन नहीं कर सकते हैं. आज की युवा पीढ़ी धनार्जन को ही शिक्षा का उद्देश्य व लक्ष्य मानती है. इस प्रकार धनार्जन करने के लिए उन्हें जहाँ बेहतर अवसर मिलेंगे वे वहीँ भाग जायेंगे. 
यही हाल पूरे भारतवर्ष में है. चाहे वह आम जनता हो, नेतागण हों, छात्र हों या सरकारी कर्मचारी, सभी ने भारत को महान कहना अपना कर्त्तव्य समझ लिया है, वे लोग अर्थात सभी भारतवासी यह भूल जाते हैं कि भारत तभी महान हो सकता है जब उसके देशवासी महान होंगे. उनको सर्वप्रथम स्वयं के अन्दर झाँककर यह देखना चाहिए कि क्या वो महान हैं? यदि हैं तो जोर से, खुले दिल से कहें,"मेरा भारत महान" अन्यथा यह कहना ही छोड़ दें कि "मेरा भारत महान". महानता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि आप सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हों, पूरा देश आपको जाने-पहचाने या आपकी जय-जयकार करे. महानता तो सदाचारों से आती है. अच्छा आचार-व्यवहार, कर्म के प्रति ईमानदारी ही आपको महान बनाती है. महानता शब्द कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसका प्रयोग सभी के लिए किया जाये. इसलिए इसका प्रयोग उसी के लिए किया जाना चाहिए जो इसका हकदार हो.
आज भी मुझे किसी व्यंग्यकार की पंक्तियाँ याद आती हैं,
"मेरा भारत महान, सौ में से निन्यानवे बेईमान"
यह पंक्तियाँ कुछ और नहीं अमुक व्यंग्यकार की मनोदशा को प्रदर्शित करती हैं. उसके मन में संदेह है कि भारत महान है अथवा नहीं. उक्त टिपण्णी कर के व्यंग्यकार ने अपना मत स्पष्ट किया है कि वर्तमान भारत महानता कि श्रेणी में कतई नहीं आता क्योंकि यहाँ भ्रष्टाचार की अधिकता है.इसी प्रकार हमारे राजनीतिज्ञों का भारत भी जनसभा को संबोधित करते समय, राष्ट्रीय पर्व पर अथवा भाषण देते समय ही महान रहता है किन्तु मंच से उतरते ही उनका भारत महान नहीं रह जाता है. हमारे देश की आम जनता का भारत भी विशेष परिस्थितियों में ही महान रहता है. तब प्रश्न पुनः उठता है कि " किसका भारत महान?" छात्र तो मानना ही नहीं चाहता क्योंकि उसकी रूचि विदेश में है, नेतागण भी नहीं, आम जनता भी नहीं, फिर आखिर किसका भारत महान है? बुलंद आवाज़ में, सुर में सुर मिलकर सभी का भारत महान है किन्तु अकेले में सभी इस भारत से ऊब गए हैं. यहाँ बदहाली, कंगाली के सिवा कुछ नहीं है.
छात्र का भारत विद्यालय में, राष्ट्रीय पर्व पर, नेता का मंच पर, लेखक का पुस्तकों व पुरस्कार वितरण के समय, अभिनेता का फिल्मों में, जनता का विशेष परिस्थितियों में भारत महान होता है. ऐसे में भारत की महानता अधर में है. जब हमारे देश के लोग ही तथ्य को मानने को तैयार नहीं हैं कि मेरा भारत महान तो फिर और कौन मानेगा? भारत को महान अथवा निम्न कहने से पूर्व हमें स्वयं को देखना होगा कि क्या हम महान हैं? क्या हमारा आचरण महान कहलाने लायक है? हमारा भारतवर्ष प्राचीन काल में महान था क्योंकि हमारे पूर्वज महान थे. यदि आज हमारे आचरण से हमारे देश कि महानता पर संदेह हो रहा है तो हमें भारतवासी कहलाने का कोई अधिकार नहीं है. हमें अधिकार है तो बस महान से महानतम बनाने का. इसके लिए हमें स्वयं का आचरण सही करना होगा. यदि हम सदाचारी होने के पश्चात स्वयं को महान समझेंगे तब केवल मुख से नहीं वरन दिल से कहेंगे, " मेरा भारत महान" और कोई दोबारा यह पूछने का साहस भी नहीं कर पायेगा कि " किसका भारत महान?"

Tuesday, May 11, 2010

भ्रष्टाचार की चौतरफा बयार

आज का युग वैज्ञानिक युग है. विज्ञान ने ही रफ़्तार को जन्म दिया है. इसी का अनुकरण आज के युग का प्रत्येक मनुष्य कर रहा है. आज के इस युग में सतत चलायमान रहने का नाम ही जीवन है. इस युग में किसी भी व्यक्ति के पास पीछे मुड कर भी देखने की फुरसत नहीं है. कछुए की चाल से चलने वाले लोगों को आज के युग में निकम्मा और आलसी कहा जाता है. आज के युग में सभी को खरगोश की तरह तेज भागने की आदत सी हो गयी है परन्तु सो जाने की छूट नहीं है.


आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति जल्दी से जल्दी अमीर बनना चाहता है. धन कमाना चाहता है, वह भी अकूत धन. धन कमाने का रास्ता कैसा भी हो कोई फर्क नहीं पड़ता. हसरत है बस धन की.वह भी इतना जिससे वह सभी ऐश-ओ-आराम के सामान जुटा ले और उसके पश्चात इतना बचा भी ले कि कम से कम उसके बच्चों को तो कोई तकलीफ न हो.पहले के लोग तो उतने धन से ही संतुष्ट थे जिससे वह भली प्रकार गुजर-बसर कर ले, परन्तु अब तो धन कमाने कि एक अंधी होड़ सी लगी है. एक हद तक इसमें कोई बुराई भी नहीं है, परन्तु धन कमाने का रास्ता ठीक होना चाहिए.परन्तु आज के लोगों कि अवधारणा है कि उचित मार्ग से धन इकठ्ठा ही नहीं किया जा सकता. ऐसे लोगों को देखकर मुझे भ्रम हो जाता है के जैसे ईश्वर ने उन्हें मरने के बाद अपने साथ अपनी कमाई लाने की छूट दे राखी है. आज चारों ओर धन कमाने की इस अंधी होड़ ने भ्रष्टाचार को जन्म दे दिया है.


आज चारो ओर भ्रह्ताचार का बोल-बाला है. शायद ही आज कोई ऐसा क्षेत्र मिले जो भ्रष्टाचारमुक्त हो. सर्वप्रथम हमारे देश की कमान जिन महानुभावों के हाथों में है वे ही सर्वाधिक भ्रष्ट हैं. प्राचीन काल के नेता जनसेवा हेतु राजनीति के क्षेत्र में आते थे, आज के नेता धन कमाने के लिए राजनीति में पदार्पण करते हैं. सरकारी कर्मचारियों का हाल तो बताने लायक ही नहीं है. जब तक उनके सिर पर चांदी का जूता न मारा जाये तब तक फाइलें उनकी मेजों से सरकती तक नहीं हैं. न्यायपालिका के क्षेत्र में तो वकीलों ने सरे-आम हमारे संविधान की इज्जत उछाल दी है. दोषी, जिनकी असल जगह सलाखों के पीछे होनी चाहिए, वे ठाठ से बहार घूम रहे हैं, अपने काबिल वकील साहब की मेहेरबानी पर.


कुछ समय पूर्व मुझसे मेरे मित्र ने पुछा कि भ्रष्टाचार मुक्त कोई क्षेत्र बताओ. मैंने तपाक से उससे कहा, सेना व सिक्षा. परन्तु मुझे अब लगता है कि मैं वहां पर बिल्कुल गलत था. शायद मैंने इन क्षेत्रों के नाम बता कर अपनी अल्पज्ञता का परिचय दिया था. हमारे वीर सैनिक युद्ध के समय अपने प्राणों कि आहुति तक दे देते हैं. परन्तु क्या सभी सैनिक ऐसे ही हैं? आखिर ये युद्ध कि स्थिति आती कैसे है? आज चारों ओर आतंक फैला है. आतंकवादी आते हैं, भरे बाजारों में, मंदिरों में, ट्रेनों में या कहिये किसी भी स्थान पर, जहाँ उनकी इच्छा होती है, धमाका करते हैं और फरार. क्या वे आतंकवादी बिना हमारी सीमा पार किये आते हैं? निगरानी करने में भी तो यही सैनिक होते हैं.तब क्या ये हमारे रणबांकुरे सो रहे होते हैं? हम हर आतंकवादी हमले के पश्चात पकिस्तान को दोष देना शुरू कर देते हैं. सब लोग बताने लगते हैं कि वह पाकिस्तानी आतंकवादी था, फलानी जगह उसने प्रशिक्षण लिया था, अमुक दल से वह जुड़ा हुआ है, या कुछ और. लेकिन जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो क्या पकिस्तान पर ही सारा दोष डाल देना सही है? हम ये क्यों नहीं जान पाते हैं कि आखिर वो हमारी सीमा पार करके कैसे आये? इतने जवान सीमा पर तैनात रहते हैं, सेना के पास अपना ख़ुफ़िया विभाग है, जो कि अत्याधुनिक तकनीक से लैस है, फिर दिक्कत क्या आती है? ऐसे में आप ही तय करिए कि भारत पर हो रहे आतंकी हमले के अकेला दोषी पाकिस्तान ही है क्या? इन सब कामों में निश्चित रूप से हमारे कुछ लोग मिले हुए होते हैं.


शिक्षा के क्षेत्र का जो हाल है, उसे कहते हुए भी शर्म आती है. आज का शिक्षक अपनी मर्यादा बेंच कर धन कामने की अभिलाषा रखता है. निजी विद्यालय तो धन कमाने का जरिया बन गए हैं, और सरकारी विद्यालय तो अवकाशों का गढ़. सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों की आरामतलबी बताने में मेरा सिर शर्म से झुक जाता है. जो मस्तक इन पूजनीय लोगों के समक्ष सम्मान से झुकना चाहिए वह शर्म से झुकता है, यह स्तिथि स्वयं ही भ्रष्टाचार की गाथा बताने के लिए काफी है.


आज के समय में यदि सर्वाधिक भ्रष्ट लोगों की बात की जाये तो हमारे देश के तथाकथित कर्णधार अर्थात हमारे नेता चोटी पर दिखाई देते हैं. नेताओं के पश्चात वकील, पुलीस व सरकारी कर्मचारी आते हैं. यह अभी तक गनीमत है की शिक्षा और सेना अभी तक इतने भ्रष्ट नहीं हैं कि इन लोगों के प्रतिभागी बन सकें. धन और पद के नशे में चूर हमारे नेता केवल धर्म के नाम पर राजनीती करते दिखाई देते हैं. वह भी कोरी राजनीति वास्तविक भला वह भी नहीं.


आज के समाचार पत्र इन्हीं नेताओं के कुकर्मों से भरे रहते हैं. आज के इस युग में भ्रष्ट लोगो की संख्या मत पूछिए, बस भ्रष्ट्राचार से दूर रहने वालों का नाम अपनी अंगुलिओं पर गिन लीजिये, यदि नाम कम पड़ जाएँ तो भी आश्चर्य मत कीजियेगा. हमारे देश को आज़ाद कराने में उस समय के खद्दरधारी नेताओं का जितना योगदान रहा है, उतना ही योगदान आज के खद्दरधारियों ने देश की ऐसी स्तिथि बनाने में दिया है. तमाम घोटालों में इनके नाम आते हैं, जांच के लिए आयोग बनते हैं, फिर सब कुछ भुला दिया जाता है. आज-कल देश में नेताओं पर न जाने कितने मुक़दमे लंबित होंगे, फिर वे ही देश के कर्णधार हैं..........


सरकारी कर्मचारी तो रिश्वत लेना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं. वे तो इस प्रकार रिश्वत लेते हैं जैसे वह उनका मौलिक अधिकार हो. कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे सरकरी नौकरी मिलने के पश्चात उन्हें रिश्वत ऐंठने का ठेका मिल गया हो. उनकी अवधारणा है कि, जब सभी, ऊपर से लेकर नीचे तक लेते हैं तो हम ही क्यों पीछे रहें? हम ही क्यों साधू बने रहें? रिश्वत न मिलने पर ये तो ऐसे रूठ जाते हैं जैसे इनके मौलिक अधिकारों का हनन किया जा रहा हो.


इस प्रकार कि भ्रष्टाचार की आंधी में फिर वही गरीब-दुखिया, भारत की जनता. आखिर मंहगाई की मार इन्हें ही झेलनी है, रिश्वत इन्हीं की जेबों से जानी है. ऐसे भ्रष्ट माहौल में देश का भविष्य क्या होगा, ईश्वर ही जाने?


यदि वास्तव में देश को समृद्ध बनाना है, देश का चौतरफा विकास करना है तो सर्वप्रथम देश में चल रही इस भ्रष्टाचार की आंधी को रोकना होगा. नेताओं को अपने चरित्र में सुधार करना होगा. आज मुझे लगता है कि यदि हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रधानमन्त्री को एकाधिकार न देकर कुछ अधिकार राष्ट्रपति को भी दिए होते तो बेहतर होता. परन्तु जो नहीं है उस पर खेद व्यक्त करने से कोई लाभ नहीं है, जो है उसी को बेहतर बनाना होगा. स्वयं ही यह समझना होगा कि हमें भ्रष्टाचार में नहीं लिप्त होना है. यदि ऐसी भावना लोगो के मन में आएगी तो ही भ्रष्टाचार समाप्त हो सकता है. भ्रष्टाचार समाप्त होने के बाद ही हम एक सही दिशा में बढ़ पाएंगे.






"  सुलग रही है माँ भारती,
   भ्रष्टाचार की आग में.
   दूर करो उसकी इस पीड़ा को,
   मिलेंगी खुशियाँ सौगात में."

Saturday, April 17, 2010

मतदान

                                                        मतदान

चुनकर जिनको संसद भेजा हमने,
दिखाए थे जिन्होंने प्रगति के सपने.
किया था वादा जिन्होंने दुःख हरने का,
हम सभी के कव्ष्टों को कम करने का.
कहा था हम कम करेंगे बेरोज़गारी,
दूर करेंगे जनता कि लाचारी.
कहा था दो हमारे पक्ष में अपना मतदान,
हम करेंगे तुम्हारी समस्याओं का समाधान.
वही नेता अब शकल नहीं  दिखाते हैं,
बंद गाडिओं में बैठ निकल जाते हैं.
अब कर रहे, बैठ, दिल्ली में मज़ा,
बाकि जनता काट रही सजा.
अपनी करनी पर पछता रही,
सौ-सौ आंसू रोज़ बहा रही.
अपने मत का किया अनुचित प्रयोग,
अब पाच बरस कि रहे यातना भोग.
ऐसी ही है मेरे देश कि भोली जनता,
जिसको लूट लेते, बहला-फुसला नेता.
बार-बार ठोकर खाई इसने,
अपने अधिकारों को न समझा इसने.
कब जानेंगे ये अच्छा-बुरा?
कौन अच्छा, कौन मसखरा ?
कब जागेंगे ये अपनी चिर निद्रा से?
कब मुक्त होंगे ये अपनी तन्द्रा से?

क्या समझाए इनको कौन?
जब स्वस्तिथि पर हैं ये मौन.

जब तोड़ेंगे जाती-पांत के बंधन को,
तभी अपनी ताकत को पहचानेंगे.
तभी कहेंगे ये ललकार,
हमारे भारत पर हमारी सरकार.

Friday, April 16, 2010

दे दो वरदान

                                                        दे दो वरदान   

हो ज्वालामुखी मेरा शरीर,
आँखों से फूटे लावा न कि नीर.
भस्म कर सके भ्रष्टाचार हो ऐसी आग,
तब सोंचूंगा  पूरा किया ऋण का अपना भाग.

एक-एक आंसू मेरे प्रलय मचा सकें,
एक-एक शब्द मेरे क्रांति ला सकें.
जब मैं कर सकूंगा ऐसा आह्वान,
तभी मेरा देश बनेगा पुनः महान.

अभी हैं साथी मेरे सोये हुए मादकता में,
भटक गए हैं राहों से पाश्चात्य कि चकाचौंध  में.
फूँक सकूँ आग क्रांति कि, ये वरदान,
तभी होगा मेरे भारत का नया विहान.

भ्रष्ट्राचार का नाग कुंडली मारे बैठा है,
धन मद में डूबा हर कोई ऐंठा है.
कर सकूँ उसको वश में दो मुझको ऐसी बीन,
तभी होगा मेरे देश का इतिहास नवीन.

भ्रष्ट राजनीती कि आग में जल रहा मेरा देश,
पाखंडी बन गए महात्मा बदल कर अपने भेष.
दे दो मुझको वरुण का वह रूप विकराल,
बना सकूँ अपने देश को रमणीय तरण ताल.

चहुँ ओर फैला है अशिक्षा का अन्धकार,
अंधों में काने राजाओं कि हो रही जय-जय कार.
मेरी कलम में दे दो इतनी ज्योति,
तभी चमकेगा मेरे देश का भाग्य जैसे जग-मग हीरे-मोती.

मेरे देश कि सुप्त अलसी युवा पीढ़ी,
सफलता पाने में धन को बना रही सीढ़ी.
दे दो बिगुल जिससे छेद सकूँ क्रांति का राग,
ताभिपुनाह चमकेगा मेरे देश का भाग्य.

हर तरफ आंधियां नफरत कि चल रहीं,
चालें सियासत कि इन्हें बढा रहीं.
बना दो मुझे हिमालय, रोक सकूँ इनकी रफ़्तार,
तभी बहेगी मेरे भारत में पुनः प्रेम कि बयार.

गुजराती, बंगाली, मराठी हैं भारतवासी नहीं है कोई,
ऐसे अखंड भारत का क्या करेगा कोई ?
दे दो मुझे   ऐसा वरदान, दे सकूँ इन्हें अखंडता का ज्ञान,
तभी लहराएगा पुनः मेरे भारत कि अखंडता का निशान .

दे दो मुझको ऐसा वरदान, कर सकूँ पूरा अपना आह्वान,
कुछ और नहीं,बस यही आकांक्षा है मन में,
जब तक जियूं इसी मिट्टी के लिए,
फिर कर दूँ स्वयं को समर्पित इसी मिट्टी में.

Monday, April 12, 2010

रेजीडेंसी का दर्द

                                                           रेजीडेंसी का दर्द            




            क्या आपने किसी इमारत को बोलते हुए सुना है ? आप भी सोंच रहे होंगे कि भला इमारतें भी बोलती हैं , ये भी कैसी बातें करने लगा ? ईंट और गारे कि बनी निर्जीव इमारतें भी अगर बोलने लगीं तो हो चूका इस संसार में हम मनुष्यों को गुजरा. लेकिन ध्यान से सुनिए, हृदय से महसूस करिए  तब आपको एहसास होगा कि ये भी बोलती हैं. हमारे कार्यों से इन्हें भी दुःख होता है, दर्द होता है. मैंने एक बोलती हुई इमारत को सुना है, उसका दर्द जाना है. क्या आप भी उसके बारे में जानना चाहेंगे?
          
           लखनऊ का हर एक व्यक्ति रेजीडेंसी के बारे में जनता ही होगा, और जो नहीं जनता उसे भारत के प्रथम  स्वतंत्रता संग्राम के इस चश्मदीद गवाह के बारे में जरूर जानना चाहिए. आप अंदाजा लगाने लगे होंगे कि इसे क्या दर्द हो सकता है , क्या तकलीफ हो सकती है इसे? मैं आपको अभी से बता देना चाहता हूँ कि इसे न तो इस बात का दर्द है कि लोग इसे भूल रहे हैं और न ही इस बात का मलाल है कि सरकार इसकी मरम्मत और रख-रखाव पर कम ध्यान दे रही है. इसका दर्द आज कि युवा पीढ़ी से है. ऐसी युवा पीढ़ी जो पाश्चात्य सभ्यता भौतिकवादी गुणों पर इतनी आसक्ति रखती है कि उसे भारतीय सभ्यता बेमानी सी लगने लगती है.
         
           आज-कल हमारे स्वतंत्रता संग्राम कि यह मूक धरोहर अपने अहाते में प्रेमी-युगलों के झुरमुट से खासा असहज महसूस करता है और आहात है. एक दुसरे कि बाहों में बाहें डाले वे प्रेम कि पींगे बढ़ने में जुटे रहते हैं. एक दुसरे के प्त्रेम में वे इस कदर खो जाया करते हैं कि उन्हें लोक-लाज कि कोई सुध नहीं रहती. ऐसे द्रश्यों को देख कर इस बूढ़े इंकलाबी कि आँखें शर्म से झुक जाती हैं.
        
           लखनऊ, नजाकत का शहर,जहाँ पर हया और नफासत का बोल-बाला हुआ करता था. अब यहाँ कि युवा पीढ़ी को पाश्चात्य विचारधारा ने अपने चंगुल में ले लिया है. तो ये नजाकत, नफासत और हया से कोसों दूर हो गए हैं और सभी को अपनी मोहोब्बत का नंगा नाच दिखने को आतुर हैं. रेजीडेंसी को दर्द है कि कभी-कभी उन्माद में ये जोड़े उसकी दीवारों पर अपने नाम तक उकेर दिया करते हैं. रेजीडेंसी कहती है कि ," मैं इंकलाबी हूँ , मेरी दीवारों ने बहुत सी  गोलियां  झेली हैं, अब मेरी उम्र के इस पड़ाव  पर मेरी दीवारों को प्यार का पोस्टर मत बनाओ ."
        
           आप खुद सोंचिये, रेजीडेंसी जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम से जुडी एक महत्त्वपूर्ण इमारत है, हमारी राष्ट्रीय धरोहर है , उसमें यह क्या हो रहा है ? क्या यह ठीक है? अब रेजीडेंसी कि पहचान बदली जा रही है. जो अब तक स्वतंत्रता संग्राम कि पहचान थी, धीरे-धीरे प्रेम-केंद्र के रूप में परिवर्तित होती जा रही है.
          
           रेजीडेंसी को इसी  बात का दुःख है. मैंने इस दर्द को महसूस किया है. क्या आपको भी लगता है कि यह गलत हो रहा है . यदि हाँ तो प्रयास करिए कि इस प्रकार कि इमारतों के दर्द को दूर किया जाये. ये हमारी रह्त्रिया धरोहर हैं , हमें इनका सम्मान करना चाहिए...............